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फ़टे कुर्ते से दुनियां देखने का सच……………………………….

Shinjan
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विगत कुछ दिनों से भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में तथाकथित राष्ट्रवाद और परिवारवाद शब्दों के जरिये एक ज़बरदस्त द्वन्द का आविर्भाव हुआ है | अबतक भारतीय राजनीति में साम्यवाद, समाजवाद,धर्म-निरपेक्षता ,सहिष्णुता-असहिष्णुता, जैसे शब्द प्रचलन में आये और काफी हद तक केंद्रीय और क्षेत्रीय स्तर के राजनीति को प्रभावित भी किया |यद्यपि इन सभी शब्दों के मायने काफी गहरे और व्यापक हैं और परिचर्चा के विषय हो सकते हैं, फिर भी परिवर्तन के प्राकृतिक चक्र में राजनीतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व को जनता के समक्ष प्रतिबिंबित करने की नयी परिपाटी ने “तथाकथित आम आदमी” के जन्म के पश्चात् अप्रत्याशित रूप से जोर पकड़ा है | कोई स्वयं को जनता के बीच का ही आम आदमी बन कर वोट मांग रहा है तो कोई खुद को फटेहाल साबित कर |
अभी हाल में ही कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को कुर्ते के फटे पॉकेट से हाथ बाहर निकाल कर जनता को उनके बीच का आदमी होने का एहसास दिलाते देखना जहाँ हास्यास्पद रहा वहीं यह चिंतन का भी विषय बना की फ़टे कुर्ते, हवाई चप्पल, फ़टी पतलून, फ़टे स्वेटर, और स्वयं को गरीबी और दरिद्रता के दलदल में पूर्ण रूप से डुबो कर ही भारत की जनता का प्रतिनिधित्व किया जा सकता है??
तकनीकी दृष्टिकोण से काफी संबल और पचास प्रतिशत से ज्यादा युवाशक्ति वाले देश में इस तरह के प्रदर्शन के क्या मायने हैं? क्या यह इस दृष्टिकोण को नहीं दर्शाता की- “तुम तो ऐसे ही हो और तुम्हे ऐसी ही भाषा समझ में आती है और तुम ऐसे ही शासित होते रहोगे |” इस तरह के नुमाईशों से वो देश को किस प्रकार का प्रतिनिधित्व देना चाहते हैं ? क्या यह प्रदर्शन प्रगतिशील युवाओं को मुंह चिढ़ाने जैसा नहीं है की तुम अभिजात्य नहीं हो सकते, तुम स्वस्थ और सार्थक जीवन नहीं जी सकते, क्यों की मैं तो तुम्हें अपने इसी रूप में आइना दिखलाता रहूँगा और तुम्हे विकास की सीढ़ी चढ़ने से रोकता रहूँगा |
जीवन में प्रगति और उसके अवरोधक का सबसे जीवंत उदाहरण सड़कों पर दिखाई देता है| मैं मुजफ्फरपुर का रहने वाला हूँ | छोटा शहर है और अभी विकास के मार्ग पर अग्रसर है| विकास हुआ है और अच्छा लगता है अपने शहर को विकसित होता देख कर| बहरहाल, जाम की समस्या आम होती है, हर छोटे शहर में | सो यहाँ भी है| आज मैं दरभंगा फोरलेन की ओर जा रहा था| अपने घर से निकला तो कभी मेरी गाड़ी आगे होती तो कभी कोई मुझसे आगे होता जो की आम बात है | एक जगह नाले का निर्माण हो रहा है इसलिए आधी सड़क ही उपयोग में आ रही है | मैं काफी आराम से रफ़्तार में जा रहा था तभी एक रिक्शा मेरे आगे मिल गया | कोई ट्रैफिक भी नहीं था कोई भीड़ भी नहीं थी फिर भी मुझे अपनी रफ़्तार कम करनी पड़ी और अमूमन रेंगना पड़ा| कहाँ चरपहिये की रफ़्तार और कहाँ उस हाथरिक्शे का रफ़्तार| यूँ कहें मैं उससे निर्देशित होने लगा | नाले का काम प्रगति पर नहीं होता तो मैं आराम से उसे ओवरटेक कर आगे निकल जाता परंतु मुझे उस रिक्शे की चाल से अपनी गाड़ी की चाल को मिलाना पड़ रहा था क्योंकि सड़क खुदी थी | खैर, किसी तरह मैं आगे निकला और जब फोरलेन पर आया तो सरपट दौड़ने लगा| सड़क भी अच्छी और न कोई रूकावट | मानो हर कोई कह रहा हो मुझसे आगे तो निकलो…..एक अनकही प्रतियोगिता……मैंने अपने विवेक से गति नियंत्रित किया या यूँ कहे की गति को विकसित किया क्योंकि मुझे वहां मेरी गति को ग्रहण लगाने वाला कोई नहीं था और सड़क भी अनुकूल थी|
कहने का पर्याय यह की एक बेबस के प्रतिनिधित्व में हम अपनी रफ़्तार कैसे बढ़ा सकते हैं? क्या इस तरह के प्रदर्शन यह प्रतिबिंबित नहीं करते की इस व्यवस्था (गढ्डे ) में तुम आगे निकल नहीं सकते कुछ सफल भी रहे तो मैं (रिक्शा) तुम्हे आगे निकलने नहीं दूंगा |
सुचना क्रांति के इस दौड़ में हम अपनी असलियत कैसे छुपा सकते हैं? हम कैसे छुपा सकते हैं की हम अपनी निजी ज़िन्दगी को कैसे व्यतीत करते हैं…छुट्टियां मनाने कहाँ जाते हैं…. अपनी सम्पति की क्या घोषणा करते हैं…हमने अपनी पढाई कहाँ कर रखी है… हमारे बच्चे कहाँ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं….नहीं छुपा सकते खास कर जब आप एक सेलेब्रेटी हैं, राजनीतिज्ञ हैं, रोल- मॉडल हैं और जनप्रतिनिधि हैं | अग्रोन्मुखी युवा समाज सब की खबर रखता है और खबर लेता भी है | उन्हें यह संज्ञान में लेना चाहिए की आज के बदलते परिवेश में यह सोच अप्रासंगिक है की समाज केवल शासित हो सकता है | आज का समाज प्रश्न करता है, समझता है| वह बुद्धिजीवी है, तार्किक है और वहिर्मुखी है| आज का समाज प्रतियोगात्मक है | यह वो समाज है जहाँ निम्न आय वाला व्यक्ति भी मोबाइल से बात करता है, इन्टरनेट पर विडियो देखता है, न्यूज़ सुनता है, सन्देश प्रेषित करता है | जहाँ गांव का किसान भी इन्टरनेट का उपयोग करता है और जानता है की खेती किस चीज़ की करें और फैक्ट्री किस चीज की लगाए | नयी फसल का ईजाद करता है| आज गांव की बेटियां भी शिक्षा ग्रहण करने दूर तक साइकिल चला कर जाती है | स्थानीय राजनीति में भाग लेकर मुखिया बनती हैं , किसान चाची बनती हैं |
हास्यास्पद तो यह है कि हम (गरीब, निम्न,मध्यम और उच्च मध्यम् वर्ग), जिन्हें, इन स्वयंभू समाजसेवियों और तारणहारों ने निसहाय, त्रस्त और निरंकुश शासनाधीन घोषित कर अपने स्वार्थसिद्धी का साधन बना रखा है, का प्रतिकार करने की प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग नहीं करना चाहते। हम अपने परिष्कृत और विहंगम अस्तित्व का मानमर्दन कर मात्र “साधन”होने के दायरे में संकुचित हैं।यह उचित समय है कि हम स्वयं को” शासित” और उन्हें “शासक” होने की मरिचीका से आजाद करें और उन्हें यह समझने को बाध्य करें यह हमारी अभिव्यक्ति और मानसिक शिथिलता की स्वतंत्रता है जो पिछले कई दशकों से सुषुप्त थी।
एक आम जनता की हैसियत से यही निवेदन करना चाहता हूँ की हमें हमारी शर्मनाक तस्वीर दिखने के बजाये हमारे जनप्रतिनिधि विशेषकर राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिज्ञ हमारे सम्मानजनक भविष्य का आगाज करें क्योंकी हमने उन्हें अपनी फटेहाल ज़िन्दगी से मुक्ति दिलाने हेतु ही भारतीय संविधान के मंदिर संसद में भेजा है|

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